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Saturday, 7 April 2012

शायद जब तुम ये पड़ो वहां सूरज की किरने न हो !



शायद  जब  तुम  ये पड़ो वहां  सूरज  की  किरने न हो   !
शायद  जब  तक  मै लिखों  यहाँ  सूरज  डल गया  हो !


रोज़  आज  कल  मै  सूरज  की  किरनू को  देखता हूँ !
सोंचता  हूँ  कि काश  मै  भी  इनके  संघ  जा  पावूं !


शायद  इस  जाहान से उस जाहान तक  पहुँच पावूं  !
फिर डर के  बादलूं  के  सएह  मै कही  खो न जावून !


कोई  तो  रसता  होगा  मेरे  दिल  से तुम्हारे  दिल  तक  !
या  की  शायद  कभी  मैंने सोंचा  न  होगा !


शायद  दिल  कि  बातें सोन्चने क़ी नहीं  होती  !
इस  लिए  मे  आज  तक  सोंच  मे  हु !


कि शायद मै  ये  सोंचना  बंध  करूँ !
और सोंच  से  बाहर आकेह  फिर  तुम्हे  यादूं  मे मिल सकूँ 


जहाँ   मेरा   वजूद   नहीं   …
जहाँ   मे   मुझको  पहचानता  नहीं ..
जहाँ  वक़्त  मेरे  होके  मेरा  नहीं …


शायद  मै  आज  फिर  से  सोन्चता हूँ ..
कि  काश  मै  बस  तुम्हरे  रुबरूह  हूँ ..
और  यह  ग़ज़ल  सुना   रहा  हूँ ...


शायद  मै  अभ  लिखता  हूँ ! 
शायद   मै  अभ  देखता  हूँ !
तुम्हारे  रूबरू   अभ   मै  चलता  हूँ !
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