शायद जब तुम ये पड़ो वहां सूरज की किरने न हो !
शायद जब तक मै लिखों यहाँ सूरज डल गया हो !
रोज़ आज कल मै सूरज की किरनू को देखता हूँ !
सोंचता हूँ कि काश मै भी इनके संघ जा पावूं !
शायद इस जाहान से उस जाहान तक पहुँच पावूं !
फिर डर के बादलूं के सएह मै कही खो न जावून !
कोई तो रसता होगा मेरे दिल से तुम्हारे दिल तक !
या की शायद कभी मैंने सोंचा न होगा !
शायद दिल कि बातें सोन्चने क़ी नहीं होती !
इस लिए मे आज तक सोंच मे हु !
कि शायद मै ये सोंचना बंध करूँ !
और सोंच से बाहर आकेह फिर तुम्हे यादूं मे मिल सकूँ
जहाँ मेरा वजूद नहीं …
जहाँ मे मुझको पहचानता नहीं ..
जहाँ वक़्त मेरे होके मेरा नहीं …
शायद मै आज फिर से सोन्चता हूँ ..
कि काश मै बस तुम्हरे रुबरूह हूँ ..
और यह ग़ज़ल सुना रहा हूँ ...
शायद मै अभ लिखता हूँ !
शायद मै अभ देखता हूँ !
तुम्हारे रूबरू अभ मै चलता हूँ !
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