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Friday, 1 August 2014

कौंसरनाग तीर्थ : इतिहास और परंपरा Dr Agnishekhar


यह कितने अफ़सोस की बात है कि धर्मनिरपेक्ष  भारत में कश्मीरी पंडितों को पहले अपनी मातृभूमि से धर्म के आधार पर पाकिस्तान समर्थित जिहादी और अलगाववादी शक्तियों ने बेदखल किया ,उन्हें जीनोसाइड का शिकार बनाया ,उनके बारे में झूठ फैलाया ,उनके  शैक्षणिक,धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों को  हथियाने या उनके बारे में विवाद खड़े करने की साज़िश को परवान चढ़ाया। उनके धार्मिक स्थलों के नाम बदले। जैसे शंकराचार्य पर्वत को तख़्त-ए - सुलेमान ,श्री शारिका पर्वत को कोह - ए - मारान करने तक ही दम नहीं लिया ,बल्कि सम्राट अशोक द्वारा बसाये इतिहास प्रसिद्द श्रीनगर को शहर-ए -ख़ास कर दिया। 

कश्मीर के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर लिखा जाने लगा। हाल ही में कश्मीरी हिन्दुओं की कश्मीर में वापसी के सरकारी उल्लेख भर से  बिदक कर अलगाववादी नेताओं  से लेकर कश्मीर के मुफ़्ती आज़म तक  उनके पुनर्वास का यह कहकर तीव्र विरोध किया कि भारत सरकार कश्मीर में मुस्लिम जनसँख्या के अनुपात को असंतुलित करने के साथ ही  यहाँ के पारम्परिक भाईचारे , कश्मीरियत को नष्ट करना चाह  रही है। 


       अभी हाल ही में अमरनाथ यात्रियों पर सुनियोजित हमलों ,करीब 150 यात्री लंगरों को जला डालने ,बच्चों ,महिलाओं सहित सभी  यात्रियों की धुनाई के बाद विश्व  प्रसिद्द खीरभवानी तीर्थ पर सामूहिक हमले के बाद अब  कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा का विरोध ही नहीं ,बल्कि उसके लिए  सरकारी अनुमति दिए जाने के बाद हुर्रियत नेता अलीशाह गीलानी के 2 मई को कश्मीर बंद  के ऐलान और भड़काई गई हिंसा के दबाव में रद्द किया गया। 

          कश्मीरी पंडितों को कुलगाम से होते हुए अहरबल के पारम्परिक रास्ते से  कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा करने से रोकने के लिए कभी पर्यावरण संरक्षण का तर्क दिया गया ,कभी यहाँ कश्मीरी हिन्दुओं के हज़ारों वर्ष पुराने तीर्थ होने के तथ्य को ही झुठलाया गया ,कभी कौंसर (नाग)को अरबी मूल का शब्द कहकर वहां मस्जिद बनाये जाने की बात कही  गयी और कभी इस  विष्णुपाद कौंसरनाग की यात्रा की प्राचीन परंपरा को ही निराधार घोषित किया गया। सबसे हास्यास्पद बात यह कि इसे आर एस एस द्वारा प्रायोजित यात्रा भी कहा गया। अब यह बताया जा रहा है कि  कौंसरनाग  विष्णुपाद यात्रा का पारम्परिक मार्ग  कुलगाम ज़िले से न होकर कश्मीर घाटी से 300 किलोमीटर दूर जम्मू जाकर वहां से 64  किलोमीटर दूर रियासी के पहाड़ी मार्ग से है। अर्थात कश्मीर घाटी के किसी हिन्दू को अगर कौंसरनाग  विष्णुपाद  यात्रा करनी हो ,तो उसे बजाय एक दिन के बदले चार दिन लगाकर जम्मू जाकर रियासी जाना होगा।
        
       कौंसरनाग  विष्णुपाद कश्मीर घाटी के दक्षिण में पीर पांचाल पर्वत - श्रंखला के बीच  शुपयन   में स्थित  कपालमोचन तीर्थ से से 34 की दूरी पर समुद्र तल से 12  हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर 5 किलोमीटर लम्बी और 3  किलोमीटर चौड़ी विशाल पाऊँ के आकार  की एक विलक्षण झील है जिसके साथ मिथकीय आख्यान, इतिहास और लोक विश्वास  जुड़े हुए हैं। इस तीर्थ का उल्लेख नीलमत पुराण , कल्हण की राजतरंगिणी  जैसे  प्राचीन ग्रंथों में तो है ही , इस का उल्लेख कश्मीर के महाराजा  रणबीर सिंह के शासन काल में पंडित साहिब राम  की  पाण्डुलिपि ' तीर्थ संग्रह ' में भी है जिसमें  कश्मीर के प्रसिद्द 365 तीर्थों के बारे में जानकारी मिलती है। यह पाण्डुलिपि अभी तक अप्रकाशित है और भंडारकर यूनिवर्सिटी में सुरक्षित है। 
        
       नीलमतपुराण के अनुसार कौंसरनाग  विष्णुपाद झील के इर्द - गिर्द बानिहाल के पश्चिम में तीन ऊंचे -ऊंचे पर्वत शिखर हैं जिन्हे ब्रह्मा ,विष्णु और महेश गिरि  के नाम से चिन्हित किया गया है। इन तीनों में से पश्चिम की ओर जो सबसे ऊंचा  शिखर है उसे  'नौ बंधन ' कहा जाता है । जल प्रलय के समय  मनु की नौका   हवा पानी तूफ़ान के थपेड़े खाते खाते यहीं जा लगी थी। नीलमत पूरा के अनुसार वास्तव में यहीं पर कहीं विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण कर अपनी पीठ से  मनुष्यता के बीज लिए मनु की नौका को धकिया कर पर्वत से जा लगाया था और मनु ने इसी शिखर से उसे बाँधा था। जब 1981 में  मैंने पहली बार कौंसरनाग  विष्णुपाद की यात्रा की, मैं सौभाग्यशाली था कि मेरे साथ प्रसिद्द भाषा वैज्ञानिक और भारतविद डॉ टी एन गंजू ,विख्यात रेडियो निदेशक के के नैयर ,प्रतिष्ठित ब्रॉडकास्टर,कवि और अनुवादक मोहन निराश और महर्षि महेश योगी के शिष्य मोती लाल ब्रह्मचारी यात्रा में साथ थे ।संयोगवष हम सभीने  'कामायनी' पढ़ रखी थी। जब हमें एक स्थानीय गुज्जर ने हवा में अपनी छड़ी उठाकर इन  तीनों शिखरों के बाद  'नौ बंधन ' दिखाया था ,तो हम देखते ही रह गए थे। निराश जी ने मुझसे भावुक मुद्रा में पूछा था ,'' कोई कविता तो नहीं याद आ रही तुमको ?'
      
उनके पूछने भर की देर थी कि मैंने और गंजू साहिब ने  छूटते ही पाठ शुरू किया था :

                  'हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर 
                   बैठ शिला की शीतल छाँह।  
                   एक पुरुष भीगे नयनों से 
                    देख रहा था प्रलय प्रवाह।। 

मुझे याद है कि नीलमत पुराण और कल्हण की राजतरंगिणी के सन्दर्भ दे देकर गंजू साहिब और मोहन निराश ने कौंसर नाग के मिथक ,उसके रास्ते में पड़ने वाले अहिनाग (पवित्र जल कुण्ड  ) और  महिनाग (पवित्र जल कुण्ड ) से संबंधित किंवदंतियां  ही नहीं सुनाईं थीं बल्कि उनकी समकालीन सन्दर्भों में भी अपनी तरह की व्याखाएं भी की थीं। मुझे पहली बार तभी पता चला था कि कौंसरनाग शब्द वास्तव में मूल संस्कृत शब्द ' क्रमसर नाग ' का अपभ्रंश है और कश्मीर में त्रिक  सम्प्रदाय ,भट्टारिका सम्प्रदाय ,कुल 

सम्प्रदाय  आदि की तरह ही क्रम संप्रदाय भी प्रचलन में रहा है। कश्मीर में  शिव का एक नाम 'क्रमेश्वर ' भी है। इस विष्णुपाद सर में क्रमेश्वर का वास होने से इस सम्प्रदाय के लोग यहाँ प्रति वर्ष  आषाढ़  पूर्णिमा  और  नाग पंचमी  को आकर पूजा अर्चना करते थे। यहाँ पुंछ और रियासी के क्षत्रिय राजपूतों में छागल (बकरा) की बलि चढ़ाने की भी परंपरा रही है। शुपयन के पास कपालमोचन तीर्थ के पूजापाठी ब्राह्मण पारम्परिक रूपसे कौंसरनाग यात्रियों के साथ हो लेते थे। डॉ त्रिलोकी नाथ गंजू के अनुसार शुपयन के निकटवर्ती  परगोच गाँव के एक बहु पठित पुजारी मोहनलाल  के पास कौंसर नाग का माहात्म्य भी हुआ करता था। उस माहात्म्य के अनुसार  कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा करने वाले यात्री को वही फल मिलते हैं जो अमरेश्वर (स्वामी अमरनाथ ) की यात्रा करने वाले को प्राप्त होते हैं। 

इस तरह कपालमोचन तीर्थ ( शुपयन ) से होकर या  कुल वागेश्वरी (कुलगाम ) से होते हुए  अहरबल प्रपात  जिसका नाम नीलमतपुराण (श्लोक  282 )   में 'अखोरबिल ' कहा गया है जिसका  अर्थ मूषक - बिल होता  है जिस से विशोका नदी ठीक वैसे ही निकली बताई गयी है जैसे भागीरथी गंगा जह्नु ऋषि के मुंह से निकलने पर जाह्नवी कहलाती है। इसके पश्चात कोंगवटन ( कुंकुम वर्तन )की  मनोरम उपत्यका में रात गुजारने के बाद सुबह मुंह अँधेरे अहिंनाग  और महिनाग को पीछे छोड़ते हुए हम विष्णुपद  तक की चढ़ाई चढ़कर बर्फानी जल से झिलमिल कौंसरनाग के दर्शन करते हैं। शब्दातीत दृश्य। अलौकिक झील। मीलों लम्बी -चौड़ी इस सुरम्य  झील के पानी पर छोटे छोटे हिमखंड दूर से राजहंसों की तरह लगते है। डॉ गंजू ने हमें विष्णुपाद की पश्चिम दिशा में  उस मुहाने के पास धीरे धीरे उतरने को कहा  जहाँ से कौंसरनाग से विशोका नदी निकलती है। मुझे याद है यहीं पर फर्फीले जल में हमने  स्नान किया था। पूजा की थी। 

     किंवदंती है की यहीं पर कश्यप ऋषि ने सतीसर की विशाल जलराशि के निकास के उपरान्त कश्मीर घाटी के लोगों के कल्याण के लिए लक्ष्मी की पूजा की थी। इससे पूर्व कश्यप ऋषि ने श्वेतद्वीप में साधना की।  कश्यप ऋषि की प्रार्थना से द्रवित होकर लक्ष्मी विशोका नदी ( कश्मीरी में वेशव ) रूप में कौंसरनाग से बहार आयीं। उसके साथ अहिनाग और  महिनाग भी चल लिए। अर्थात इन दोनों पवत्र कुंडों का जल भी  विशोका में जा मिला। विशोका  कौण्डिन्य नदी ,क्षीर नदी और वितस्ता में जा मिलतीं है। 

     यहीं इसी विष्णुपाद कौंसरनाग के पश्चिमी मुहाने पर सविनय हाथ जोड़कर कश्यप ऋषि देवी विशोका की स्तुति करते हैं -'' हे माता लक्ष्मी ,तुम इन कश्मीर हो !तुम्हीं उमा के रूप में प्रतिष्ठित हो !तुम ही सब देवियों में विद्यमान हो !तुम्हारे जल से  स्नान आने पर पापी भी मोक्ष पाते हैं। '

       नीलमत पुराण का गहन अध्ययन करने पर पता चलता है कि कश्मीर घाटी में प्राचीनकाल से उत्सवों और यात्राओं  की साल भर धूम रहती रही  है। ऐसी वार्षिक यात्राओं में कौंसरनाग यात्रा भी  कोई अपवाद नहीं है। कश्मीर की आदि नेंगी  ललद्यद चौदहवीं  शताब्दी में अपने एक लालवाख में  क्रमसर नाग का उल्लेख करती  हैं  जिससे इसके माहात्म्य का साहियिक सन्दर्भ सामने आता है। ललद्यद् अपने पूर्जन्मों की स्मृति की बात करते हुए कहती हैं क़ि उसे से तीन बार सरोवर ( सतीसर ) को जलप्लावित रूप में देखने की याद है। एक बार सरोवर को मैंने गगन से मिले देखा। एक बार हरमुख (शिखर) को  क्रमसर ( शिखर) से जुड़ा एक सेतु देखा।  सात बात सरोवर को शून्याकार होते देखा। 

         जो अलगाववादी आज यह कहने लगे हैं कि उन्होंने कभी कौंसरनाग यात्रा होते नहीं देखी  है ,इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता। जिहादी आतंकवादियों और अलगाववादियों ने 1990 में जब कश्मीर से वहां के मूल बाशिंदों को ही जबरन जलावतन किया ,जो कि कश्मीरी पंडित थे ,स्वामी अमरनाथ की यात्रा छोड़ के बाकी सभी यात्राये प्रभावित  रहीं हैं। क्या ऐसे जिहादियों को बताने की ज़रुरत है की मुगलों के शासनकाल में कौंसरनाग यात्रा  प्रतिबंधित रही है। रही बात इस यात्रा से पर्यावरण प्रदूषित होगा ,इससे बचकाना और बनावटी तर्क कोई नहीं हो सकता है। अभी कुछ वर्ष पहले मुग़ल रोड के निर्माण के दौरान हज़ारों हज़ार पेड़ बिना किसी चूं - चपड़ के काटे गए , डल झील को मौत के कगार पर पहुंचाया गया ,चिनार काट डाले गए ,जंगलों का सफाया किया गया, हज़ारों हाउसबोटों का मल - मूत्र डल में निर्बाध जा रहा है। आचार झील और विश्व प्रसिद्द वुल्लर झील की दयनीय हालत पर कोई अलगाववादी नेता ,आतंकवादी सरगना बयान नहीं देता ,कश्मीर बंद का आह्वान नहीं करता। 

      कौंसरनाग विष्णुपाद की यात्रा की इजाज़त देने से कश्मीर की मुस्लिम अस्मिता खतरे में पड़ने वाली है ,ऐसा भी खुलम खुल्ला कहा जा रहा है। . 


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